जैन धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है. ‘जैन’ जिन से बना है. जिन बना है ‘जि’ धातु से जिसका अर्थ है जीतना. जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं ‘जिन’. शरीर पर ना कोई वस्त्र, शुद्ध शाकाहारी भोजन और मिठी बोली एक जैन अनुयायी की पहली पहचान है. जैन धर्म की दो शाखाएँ हैं- श्वेताम्बर (सफेद वस्त्र धारण करने वाले) और दिगम्बर (आकाश को धारण करने वाला या नंगा रहने वाले). भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे, जिनका जन्म लगभग ई. पू. 599 में हुआ. महावीर ने अपने जीवनकाल में पूर्व जैन धर्म की नींव काफ़ी मजबूत कर दी थी. अहिंसा को उन्होंने जैन धर्म में अच्छी तरह स्थापित कर दिया था. सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे ‘जिन’ (जयी) कहलाए. उन्हीं के समय से इस संप्रदाय का नाम ‘जैन’ हो गया.
आज हम यहां महावीर द्वारा जैन धर्म के प्रचारित पांच सिद्धांतों की चर्चा करेंगे-
अहिंसा – जीवन का पहला मूल सिद्धांत है ‘अहिंसा परमो धर्म’. अहिंसा में ही जीवन का सार समाया है. अब अहिंसा भी कई तरह के हैं. सबसे पहले………
कायिक अहिंसा – यानी किसी भी प्राणी (जिसमें जीवन है) को जाने-अनजाने अपनी काया से हानि नहीं पहुंचाना. अतः इसका यही कहना है कि अहिंसा को मानने वाले किसी को भी पीड़ा, चोट, घाव आदि नहीं पहुँचाते.
बौद्धिक अहिंसा- यानी जीवन में आने वाली किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति घृणा का भाव ना रखना.
सत्य – सत्य बोलना यानी सही का चुनाव करना. जैसे उचित व अनुचित में से उचित का चुनाव करना. शाश्वत व क्षणभंगुर में से शाश्वत को चुनना.
अचौर्य – यानी चोरी न करना. साथ ही किसी वस्तु को हड़पने की सोचना तक नहीं.
त्याग – यानी संपत्ति का मालिक नहीं. इसमें सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों और विचारों का मोह छूट जाता है.
ब्रह्मचर्य – सदाचारी जीवन जीने के लिए. यह सिद्धांत उपरोक्त ३ सिद्धांतों — अहिंसा, सत्य, अचौर्य के परिणामस्वरूप फलीभूत होता है. इसका शाब्दिक अर्थ है ‘ ब्रह्म + चर्य ‘ अर्थात ब्रह्म [ चेतना ] में स्थिर रहना.
जैन धर्म की शिक्षाएँ समानता, अहिंसा, आध्यात्मिक मुक्ति और आत्म-नियंत्रण के विचारों पर बल देती हैं. महावीर की दी शिक्षाओं के अनुसार जैन धर्म में कृषि कार्य को भी पाप माना गया है. इसका कारण ये दिया गया कि इससे पृथ्वी, कीड़े और जानवरों को चोट पहुंचती है.