एक ही मुद्दे पर सैकड़ों आरटीआई डाली जा रही
आरटीआई का दुरुपयोग ये हो रहा है कि एक ही मुद्दे पर सैकड़ों आरटीआई डाली जा रही हैं। लोगों ने बाकायदा खुद को आरटीआई कार्यकर्ता घोषित कर लैटरहेड छपवा लिए हैं और एक आदमी सौ-सौ आरटीआई दाखिल कर बाकायदा एक आरटीआई प्रोफेशनल बन गया है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पक्ष ये है कि जिससे सूचना मांगी जा रही है वो भी कोई संत नहीं है। किसी भी विभाग में आप आरटीआइ लगाएं, आवेदन खारिज होने की वजहें लगभग सभी आवेदनों में एक सी होंगी।
तीन-चार वजहें से एप्लीकेशन खारिज की जाती
विभागों ने अपनी सुविधा के मुताबिक 10-15 वजहें तय कर ली हैं और इन्हीं में से कोई तीन चार वजहें बताकर एप्लीकेशन खारिज कर दी जाती हैं। आवेदन की प्रक्रिया भी देशभर में एक समान नहीं है। सबसे पहली बात तो आरटीआई एक्ट सारे देश में एक जैसा लागू होना चाहिए और इसकी प्रक्रिया एक जैसी होनी चाहिए।
केवल चार राज्य ऑनलाइन
अभी तक सिर्फ चार राज्यों में दिल्ली, कर्नाटक, उड़ीसा, महाराष्ट्रमें ऑनलाइन सिस्टम है। पूरे देश में नहीं है। गांव-गांव में इंटरनेट का उपयोग हो रहा है लेकिन आरटीआई को ऑफलाइन ही मंगाया जा रहा है। ऑनलाइन आवेदन का जवाब ऑफलाइन दिया जा रहा है, इसे भी ईमेल पर भेजने की व्यवस्था की होनी चाहिए। इसकी फीस भी लेने के तरीके अलग-अलग हैं। फीस के लिए ऑनलाइन ट्रांजैक्शन के विकल्प देश में दिए जा सकते हैं।
आईडी प्रूफ जरूरी
पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट सुझाव दे चुका है कि हर आरटीआई के साथ आईडी प्रूफ अनिवार्य होना चाहिए, लेकिन व्हिसिलब्लोअर को खतरा होने की दलील देते हुए आरटीआई कार्यकर्ता इसका विरोध कर रहे हैं। लेकिन सरकार के पक्ष में भी अनेक खामियां हैं। सूचना आयुक्त हमेशा सरकारी सिस्टम के पक्ष में काम करते हैं क्योंकि इनमें से ज्यादातर सेवानिवृत्त अफसर होते हैं। ये जनता के पक्ष में काम नहीं करते। इस सिस्टम में ईमानदारी और सूचना आयुक्तों की तैनाती की प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष व्यक्ति की नियुक्ति होनी चहिए।
ब्लैकमेलिंग के इरादे से लगाई जाती आरटीआई
सवाल ये भी उठा कि जिसका टेंडर से कोई लेना देना नहीं है वो क्यों आरटीआइ लगाता है। मद्रास हाईकोर्ट ने एक बार कहा था कि आरटीआई के लिए पब्लिक इंट्रेस्ट जरूरी होना चाहिए। लेकिन ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जिनका व्यापक जनहित से वास्ता है पर किसी एक व्यक्ति से नहीं। ये भी सच है कि ब्लैकमेलिंग के इरादे से आरटीआई लगाई जाती हैं। दूसरों के नाम से भी लोग आरटीआई लगा देते हैं, लेकिन सरकारी अफसर भी झंझट से बचने के लिए एफआइआर नहीं कराते। हालांकि जब जवाब नहीं देना होता है तो सरकारी कर्मचारी आवेदन को अनेक विभागों में दौड़ाकर अटकाए रहते हैं या फिर रटा-रटाया जवाब दे देते हैं।
फीस बढ़ाने का वक्त
आरटीआइ की फीस भी 2005 में तय की गई थी जिसे अब बढ़ाने का वक्त आ गया है. इस कानून में तार्किक सुधारों का समय भी अब आ गया है ताकि आरटीआई एक धंधा न बन जाए और जनहित की महत्वपूर्ण सूचनाओं पर अफसर कुंडली मारकर न बैठ जाएं।