जयपुर। वर्ल्ड बैंक के अनुसार, दुनिया की 15 फीसदी आबादी किसी न किसी रूप में दिव्यांग है। वैश्विक आबादी का पांचवा हिस्सा यानी लगभग 110 मिलियन से 190 मिलियन के बीच लोग गंभीर विकलांगता से पीड़ित हैं जबकि भारत की आबादी में लगभग 80 मिलियन लोग दिव्यांग हैं। भारत में, 1.6 फीसदी आबादी दिव्यांग है और उनमें से 35.2 फीसदी बच्चे हैं। अपने छोटे-छोटे काम के लिए भी दिव्यांग बच्चों का दूसरों पर निर्भर होना पड़ता है और यह उन्हें आगे चल कर भेदभाव का शिकार बनाता है। विशेष रूप से दिव्यांग बच्चे काफी कठिनाइयों का सामना करते हैं और अपनी जरूरतों और अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। यह मुद्दा ग्रामीण क्षेत्रों और निम्न सामाजिक-आर्थिक तबके में अधिक प्रमुख है, जिसमें विकलांगता को एक कलंक के रूप में देखा जाता है और जादू-टोने से लेकर बाहरी शक्तियों से जोड़ दिया जाता है। बच्चे खुद को असहाय महसूस करते हैं, कई जगह उनके साथ दुर्व्यवहार होता है और उन्हें अपना जीवन कठिनाइयों से भरा लगने लगता है।
दिव्यांगों के लिए काम करने वाले नारायण सेवा संस्थान के प्रमुख प्रशांत अग्रवाल का मानना है कि कई माता-पिता और रिश्तेदार अपने बच्चे की दिव्यांगता से खुद को पराजित महसूस करते हैं और उन्हें समझ नहीं आता कि बच्चे को कैसे संभाला जाए, ऐसे में वे बच्चे और उसकी कई जरूरतों और आवश्यकताओं की उपेक्षा करते हैं। यहां तक कि सार्वजनिक स्थानों पर, जैसे कि स्कूल या पार्क, में भी दिव्यांग बच्चों के साथ अलग व्यवहार किया जाता है और एक तरह से उनकी स्थिति समाज से बहिष्कृत जैसी हो जाती है। कई और भी मुश्किलों का दिव्यांग बच्चों को सामना करना पड़ता है।