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अगर कांग्रेस भी गठबंधन के साथ आ जाती तो यूपी में बीजेपी का क्या होता?

सिर्फ 8 ऐसी सीटें थीं जहां कांग्रेस और महागठबंधन को मिले वोटों का योग एनडीए से ज्यादा था. इस आधार पर कहा जा सकता है कि अगर सब साथ मिलते तो भी एनडीए को कम से कम 56 सीटें मिलतीं.

 

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन के बाद 2019 लोकसभा चुनाव में 2014 दोहरा पाएगी अथवा नहीं, सभी की नजरें इसी पर टिकी थीं. नतीजे आए तो पिछली बार के मुकाबले पार्टी को सिर्फ 9 सीटों का नुकसान हुआ. भाजपा को कुल 80 में से 62 सीटें मिलीं जबकि सहयोगी अपना दल अपनी दोनों सीटें बचाने में कामयाब रही.  सवाल ये है कि अगर गठबंधन में कांग्रेस शामिल हो जाती तो नतीजे बदल जाते. जवाब है नहीं. कांग्रेस तो कायदे से वोट काटने में भी कामयाब नहीं हो पाई. सिर्फ 8 ऐसी सीटें थीं जहां कांग्रेस और महागठबंधन को मिले वोटों का योग एनडीए से ज्यादा था. इस आधार पर कहा जा सकता है कि अगर सब साथ मिलते तो भी एनडीए को कम से कम 56 सीटें मिलतीं. हालांकि ये एक आभासी स्थिति है. सपा–बसपा गठबंधन को मिले वोट साफ दर्शाते हैं कि सिर्फ एक साथ लड़ने से ही एक दूसरे को वोट ट्रांसफर नहीं होते, क्योंकि कहते हैं ना कि राजनीति में कभी 2 और 2 का जोड़ 4 नहीं होता.

2019 नतीजों का सीट दर सीट विश्लेषण करने से पता चलता है कि 2014 के मुकाबले 78 में से 51 सीटों पर दोनों पार्टियों के वोट शेयर घटे हैं. 2014 में दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ीं थीं. 15 सीटों पर तो सपा और बसपा के वोट 10 फीसदी तक घट गए. यानि दोनों पार्टियों के वोटरों के बीच ‘तालमेल’ की भारी कमी थी.

2014 के आंकड़ों पर नजर डालें तो बीएसपी और समाजवादी पार्टी के वोटों का गठजोड़ 41 सीटों पर आगे था. यानी अगर 2014 में दोनों साथ लड़े होते तो बीजेपी 71 की बजाए सिर्फ 37 सीटों पर सिमट कर रह जाती. इसी गणित को आधार बनाकार मायावती और अखिलेश ने हाथ मिलाया, मगर 2019 में ये हो न सका.

दूसरी तरफ एनडीए ने 80 में से 74 सीटों पर अपना वोट शेयर बढ़ाया, 6 में 5 ऐसी सीटें थीं जहां उनका वोट प्रतिशत करीब 3 फीसदी तक गिरा, सिर्फ मुज्जफनगर की सीट पर उनका वोट शेयर करीब 9 फीसदी गिरा इसके बावजूद आरएलडी के नेता अजित सिंह चुनाव जीत न सके और बीजेपी से ये सीट छीन नहीं पाए.

क्या ये माना जाए कि यूपी में जाति और सामाजिक ताने बाने ने कोई भूमिका नहीं निभाई, तो इसका जवाब भी ना है. आजतक-एक्सिस माई इंडिया का चुनाव बाद सर्वेक्षण कहता है कि दोनों पार्टियों ने अपना कोर वोटर बचाकर रखा.

70 फीसदी से ज्यादा मुसलमान, जाटव दलित और यादवों ने महागठबंधन के पक्ष में वोट दिया. वहीं 70 फीसदी से ज्यादा सवर्णों, गैर यादव पिछड़ी जातियों, करीब 57 फीसदी गैर जाटव दलितों और 55 फीसदी जाटों ने भाजपा को वोट दिया. मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि शेष सभी जातियों के ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया.

आखिर ये हुआ कैसे

यूपी की कुल जनसंख्या में मुस्लिम, यादव और दलितों आबादी की भागीदारी करीब 49 फीसदी है. इसमें से गैर जाटव दलितों को हटा दें तो महागठबंधन के कोर वोटर 39 फीसदी ही रह जाते हैं क्योंकि गैर जाटव आबादी करीब 10 फीसदी है. एक खास बात ये भी है कि महागठबंधन के 39 फीसदी वोट राज्य भर में बिखरे हुए हैं.

एक्सिस माई इंडिया के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर प्रदीप गुप्ता का कहना है कि अगर आप सीट दर सीट एनालिसिस करेंगे तो पाएंगे कि पूरे राज्य में एक ही समुदाय के लोग हर जिले में अलग अलग संख्या में हैं. माई एक्सिस के नंबरों के मुताबिक गठबंधन का जातीय गणित उनके हिसाब से फिट नहीं बैठा. 80 में से सिर्फ 20 सीटों पर गठबंधन का जातीय तालमेल बैठा जबकि बाकी सीटों पर भाजपा को लाभ मिला.

यूपी का जातीय गणित फेल नहीं हुआ, बल्कि यह भाजपा के पक्ष में चला गया. हालांकि यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि गैर जाटव वोटों को बीजेपी ने अपनी तरफ खींचकर पासा पलट दिया. एक्सिस माई इंडिया का मानना है कि गैर जाटव दलितों ने भाजपा को गरीबों के लिए चलने वाली केंद्रीय योजनाओं (मुफ्त सिलेंडर गैस, शौचालय, मुफ्त घर ) के चलते पसंद किया.

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