सरस्वती पूजनोपरान्त मंचासीन अतिथियों व सभागार में आगंतुक काव्य रसिकों का स्वागत संस्थान के अध्यक्ष वरिष्ठ रंगकर्मी डॉ० सुनील माथुर के द्वारा किया गया। संस्थान के सचिव कमल शर्मा ने संस्थान की सर्जनात्मक गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि वर्ष के इस अन्तिम कार्यक्रम के साथ ही यह संस्थान आगामी मकर संक्रान्ति से अपनी सर्जनात्मक गतिविधियों के रजत जयन्ती वर्ष में प्रवेश कर रहा है। सर्जनात्मक सन्तुष्टि संस्थान के संस्थापक वरिष्ठ साहित्यकार अनिल अनवर की ओर से सभी मंचासीन मेहमानों को साहित्यिक पुस्तकें उपहारस्वरूप भेंट की गईं तथा संरक्षक मृदुला श्रीवास्तव के द्वारा उन्हें स्मृति चिह्न प्रदान किये गये। तत्पश्चात काव्यकृति का विमोचन मंचासीन अतिथियों के कर-कमलों से सम्पन्न हुआ और कृति के रचयिता कवि विमल मेहरा को पुष्पहार, साफा, शाल, श्रीफल, साहित्य, स्मृति चिह्न आदि भेंट कर के सम्मानित किया गया।
कृतिकार विमल मेहरा जी ने अपनी कुछ कविताओं का और अपने प्रबन्ध काव्य के चयनित अंशों का श्रोताओं के सम्मुख वाचन किया।
कृति पर पत्रवाचन करते हुए महावीर सिंह ‘ख़ुर्शीद’ ख़ैराड़ी ने चितौड़गढ़ के गौरवपूर्ण पहले साके व जौहर के गौरवपूर्ण कथानक पर आधारित इस खण्डकाव्य की विशेषताओं को अंकित करते हुए इसी विषय अन्य कवियों द्वारा रचित उद्धरणों से भी अलंकृत अपने विद्वतापूर्ण आलेख में कृतिकार की सराहना की तथा कुछ कमियों की ओर भी संकेत करते हुए काव्यकृति ‘अग्नि-समाधि’ का नीर-क्षीर विवेचन किया!
अपने उद्बोधन में विशिष्ट अतिथि हरि प्रकाश राठी ने काव्य में छन्द की अनिवार्यता पर बल देते हुए कहा कि, ” हम भारतीय लोग परम्परा से ही अपने समस्त ज्ञान को छन्दोबद्ध रूप में काव्यबद्ध करते आये हैं और इसी स्मृति व श्रुति परम्परा के कारण क्रूर व बर्बर आक्रान्ता हमारे साहित्य व इतिहास को नष्ट नहीं कर पाये।” उन्होंने कहा कि, “चित्तौड़गढ़ के प्रथम जौहर व साके के अद्भुत आख्यान को कवि विमल मेहरा ने छन्दोबद्ध कर के समाज को एक ऐसी कृति दी है जो हर घर में पहुँचाने के योग्य है।”
मुख्य अतिथि डॉ० हरिदास व्यास ने अपने उद्बोधन में कहा कि, “निस्संदेह छन्दानुशासन काव्य सृजन का अति महत्वपूर्ण घटक है परन्तु कविता में भावों के प्रवाह की ही अधिक प्रमुखता होती है। इसीलिये तुलसीदास को केशवदास से बड़ा कवि माना गया है।” उन्होंने कहा कि, “काव्य में प्रवाह और लयबद्धता रखते हुए छन्दशास्त्र के पूर्ण ज्ञान के बिना भी काव्य सृजन हो सकता है।”
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए डॉ० रमाकान्त शर्मा ने स्वीकार किया कि भारतीय छन्दोबद्ध काव्य परम्परा अति समृद्ध रही है तथा हमें पश्चिमी काव्य आन्दोलनों से प्रेरित व प्रभावित होने की आवश्यकता नहीं थी। उन्होंने कहा कि, “छन्दों का ज्ञाता महाप्राण निराला जैसा कवि ही छन्दानुशासन को भंग कर के मुक्त छन्द में छन्द मुक्त कविता को पूरी गेयता व लयबद्धता के साथ रचने में समर्थ हो सकता है। अतः काव्य में लय व गेयता अवश्य होनी चाहिए पूर्णरूपेण छन्दबद्धता भी हो तो और भी सुन्दर।”
कार्यक्रम में सूर्यनगरी जोधपुर के अतिरिक्त बाहर से पधारे अनेक विशिष्ट साहित्यकारों व काव्यानुरागी अतिथियों की सहभागिता भी उल्लेखनीय रही।